स्नेह और आशीर्वाद के साथ

09 जुलाई 2009

हाँ जी, अब हम पढ़ने भी लगे हैं

न....न आप आश्चर्य न करिए, हम पढ़ने लगे हैं। दरअसल हमें किताबें बहुत छोटे से ही बहुत पसंद आने लगीं थीं। हम जब भी अपने पिताजी को कुछ पढ़ते देखते तो उनकी किताबों को पकड़ने के लिए लपकते। कई बार कुछ किताबें और समाचार-पत्र हमने फाड़ भी दिये। इस कारण से हमारे चाचा हमारे लिए एक सुन्दर सी किताब ले आये थे।
किताब आये बहुत दिन हो गये थे। हमने उसमें कुछ चित्रों को पहचानना भी शुरू कर दिया था। कुत्ता, गाय, कबूतर, फूल को तो हम बड़ी अच्छी तरह से पहचान लेते हैं। इसका एक कारण हमारी गली में रोज ही कुत्ता, गाय, चिड़िया आते-जाते रहते हैं।
किताब में बनी छोटी लड़की को हम दीदी के द्वारा पहचान पाते हैं। और तो और अब हम आइसक्रीम को भी पहचानने लगे हैं। पहले हमने आइसक्रीम देखी नहीं थी इस कारण हम उसे पहचान नहीं पाते थे। इस बार गर्मियों की छुट्टी में हम अपने नाना के घर इलाहाबाद गये। वहाँ हमारे मामा ने हमको आइसक्रीम खिलाई, सच में बड़ा मजा आया। तब से हम आइसक्रीम पहचानने लगे हैं।
हमें वैसे भी चाकलेट, फ्रूटी बहुत ही पसंद है पर घर में सब लोग हमें ज्यादा नहीं खाने देते हैं। हमको भी पता है कि ज्यादा खाना नुकसान करता है पर क्या करें मन ही नहीं मानता है। वैसे एक बात और हमारे दाँत तो हैं नहीं (नहीं...नहीं...अभी छह दाँत तो हैं) जो गिर जायेंगे। वैसे भी इन दाँतों को तो गिरना ही है। चलिये बड़ों की बात माने लेते हैं, नहीं खाते हैं ज्यादा इन चीजों को।
बात हो रही थी पढ़ने की। दो-तीन दिन पहले हमारी किताब हमें फिर मिल गई। तबसे इसे हम अपने संग लिए घूम रहे हैं। सब लोग कहते हैं कि हमें भी पढ़ने की आदत रहेगी। हमारे बाबा को भी कुछ न कुछ पढ़ते रहने की आदत थी। उनका तो आज भी एक बक्सा है जो साहित्यिक उपन्यासों से भरा हुआ है। हमारे पिजाती के बाबाजी भी सारा दिन कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे। (हालांकि इन दोनों लोगों को हमने तो देखा नहीं है।) हमारे पिताजी भी बहुत पढ़ते हैं, सारा दिन कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं। हमारे पिताजी के पास भी बहुत किताबें हैं। सेल्फ में सजी किताबें देख कर हमारा मन बहुत ललचाता है।
हम भी सोचते हैं सजा लो आप कुछ दिन और। जब हम थोड़ा बड़े हो जायेंगे तो निकाल कर पढ़ लिया करेंगे।

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