स्नेह और आशीर्वाद के साथ

30 जुलाई 2009

मिल लीजिये हमारे साथियों से भी

हमें बहुत अच्छा लग रहा है आप लोगों से बात करके। हमें कई बार दिन में या फिर रात में पिताजी या फिर मम्मी बतातीं हैं कि आप लोगों ने क्या कहा। हमें बहुत मजा आता है अपने बारे में आपका स्नेह और प्यार देखकर।
हमारी बात को आप तक पिताजी या फिर मम्मी कभी-कभी पहुँचा देते हैं। आप लोग चिन्ता न करिएगा। हमने आपको बताया ही था कि हमने कम्प्यूटर चलाना सीख ही लिया है। हम जल्दी ही आप लोगों से खुद बात कर लिया करेंगे।
अभी होता ये है कि ज्यादातर समय या तो पिताजी कम्प्यूटर पर काम करते रहते हैं या फिर चाचा। हमें तो मौका ही कम मिलता है। इस कारण से हम अपने दोस्तों के साथ खेलते रहते हैं।
मोहल्ले में तो दोस्त हैं पर हर समय घर से बाहर भी तो नहीं खेला जा सकता है। जब बाहर खेलने को मिलत है तो अपने दोस्तों के साथ खेलते हैं और जब बाहर जाने को नहीं मिलता है तब हम अपने घर के दोस्तों के साथ खेलते हैं।


घर में हमारे साथ खेलने में दादी बराबर साथ रहतीं हैं। चलिए अब बातें कम, हम आपको अपने दोस्तों से मिलवा दें।
ये है पढ़ने वाली गुडिया। अपने हाथ में किताब लेकर ये ए बी सी डी भी पढ़ती है और जब किताब का पन्ना पलट दो तो यह एपल, बेबी, केमल आदि के बारे में बताने लगती है।


ये छोटा सा प्यारा सा भैया है। इसके हाथ में एक छोटा सा बटन लगा है जिसको हलके से दबाने से यह गाना गाते हुए चलना शुरू कर देता है। आपको बतायें पहली बार तो इसकी हरकत देखकर हमें डर लगा था पर अब नहीं लगता है।


ये दो बच्चों का सी-सा झूला है। चाबी भर दो फिर देखो इनका झूलना। बड़ा मजा आता है। हम अभी तक सी-सा पर नहीं झूले हैं। अभी दो महीने पहले कानपुर गये थे। वहाँ हम लोग बच्चों के एक पार्क में भी गये थे। वहाँ कई झूलों में झूले किन्तु सी-सा न होने के कारण उसमें झूलने को नहीं मिला।


और भी बहुत से खिलौने हैं जो हमारे साथ बड़े ही प्यार से खेलते हैं। हमें भी इनके साथ खेलने में बड़ा मजा आता है।

अभी आप लगे हाथ वीडियो भी देख लीजिये -

29 जुलाई 2009

थोड़ा सा हमारा भी परिचय

आपसे अभी तक बहुत सारी बातें हुईं हैं पर हमने अभी तक आपको अपने बारे में नहीं बताया है। हमें भी आज लगा कि पहले हमें अपने बारे में भी बताना चाहिए था कि हम कौन हैं? क्या करते हैं? कहाँ रहते हैं? वगैरह-वगैरह।
चलिए तो अभी कौन सा देर हो गई है। हम बताते हैं तो आपको सुनना ही पड़ेगा। पहली बात तो ये कि हम अभी बहुत छोटे हैं। करने को कुछ नहीं है सिवाय शैतानी के। घर पर वो ही धमाल मचा रहता है।
परिवार में हमारे मम्मी-पिताजी के अलावा हमारी दादी हैं। हमारे बाबा को तो हमने देखा ही नहीं। इसके अलावा दो चाचा हैं तथा एक चाची हैं।
बाकी अन्य पारिवारिक जनों में हमारे बाबा के तीन छोटे भाई मतलब हमारे तीन बाबा-दादी हैं, जो अलग-अलग शहरों में रहते हैं।
आप लोग घबराइये नहीं, हम पारिवारिक विवरण नहीं दे रहे हैं। हाल-फिलहल इतना ही।
रही बात हमारी तो हम सात मई 2009 को जन्म लेने के बाद आप सब लोगों से बात करने के लिए यहाँ आये हैं। जन्म हमारा हमारे शहर उरई में ही हुआ है। उरई बहुत छोटा सा शहर है जो कानपुर-झाँसी राजमार्ग पर ठीक बीचों-बीच स्थित है। यहाँ के रेलवे स्टेशन के रसगुल्ले बहुत ही प्रसिद्ध हैं। घर पर सभी लोग बताते हैं कि हमारे बाबा के एक दोस्त हैं उनहोंने अपनी युवावस्था में एक शर्त को पूरा करने के लिए पचास से अधिक रसगुल्ले एक बार में खाकर दिखाये थे।
हमारे ब्लाग पर आने की सूचना तो आपको पहले ही हो चुकी है। आज सोचा कि अपने बारे में भी थोड़ा सा बता दें। समय-समय पर हम आपको और भी बहुत कुछ बताते रहेंगे अपने बारे में। तब तक नमस्ते।

28 जुलाई 2009

फ़िर से तैयारी हमारे मुंडन की

आजकल हमारे तीसरी बार मुंडन होने की तैयारी चल रही है। घर में दादी अपने दिन और हिन्दी महीनों का हिसाब लगा कर बता रहीं थीं कि किस दिन मुंडन करवाना है।
जब हमारा पहली बार मुंडन हुआ था तो हम बहुत रोये थे। उस समय हम छोटे भी बहुत थे। बाल बनाने वाले को चाचा घर पर ही बुला लाये थे।


हमारे सबसे बड़े बुआ-फूफा भी आये थे। जब बाल बनाने वाले अंकल ने छुरा हमारे बालों पर लगाया तो हमने एकदम रोना शुरू कर दिया। हमारा रोना देखकर कभी हमें दादी अपनी गोद में लेतीं तो कभी हमें चाचा अपनी गोद में ले लेते। हम कभी रोते-रोते मम्मी की गोद में आ जाते।
हमको हर तरह से बहलाने-फुसलाने की कोशिश की जाती रही। जैसे ही हमारे बाल काटने बंद किये जाते हम रोना बंद कर देते और जैसे ही बाल काटने शुरू किये जाते हम फिर रोना शुरू कर देते।
जब हमारा मुंडन हो गया तो हमारी बुआ ने हमारे बिना बाल के सिर पर हल्दी लगाई।

एक तो यह रस्म है दूसरे हमारे फूफा जी ने बताया कि हल्दी के एंटीबायोटिक होने के कारण फायदा ही होगा।
हम अब चुप हो गये थे क्योंकि हमारे बाल कट चुके थे। हमारे रोने पर सबसे ज्यादा परेशानी तो हमारे चाचा को हो रही थी। वे तो घर से बाहर निकल कर दूर बैठ गये थे ताकि हमारे रोने की आवाज न सुन सकें।


दूसरी बार में जब मुंडन हुआ था तो गरमी भी बहुत थी। हमारे पिताजी ने हमें अपनी गोद में लिया और हमारे रोने के साथ-साथ हमारा मुंडन करवा दिया।
अब हमें बहुत डर लग रहा है क्योंकि अब किसी दिन फिर मुंडन होगा। वैसे अब चाचा घर पर ही हैं और चाचा के रहते हमें डर नहीं लगता है।
आप देखिये पहली बार मुंडन के बाद हम कैसे लग रहे थे। हमारी मम्मी कहतीं हैं कि मुंडन के बाद हम किसी संस्कृत पाठशाला के विद्यार्थी की तरह लगने लगते हैं।

क्या यह सच है?

27 जुलाई 2009

सब अपने काम में, हम भी अपने काम में

आज दोपहर के समय घर में कुछ खटपट सी सुनाई दी। हमें समझ नहीं आया कि हो क्या रहा है? कमरे से झाँक कर देखा तो पता चला कि लाबी में कुछ चल रहा है।
सामने कुछ बड़ा सा सफेद रंग का सामान रखा था, हमारे लिए तो वह अजूबा ही था। आश्चर्य में इधर-उधर देखा, किसी ने कुछ नहीं बताया। दादी से आँखों ही आँखों में पूछा तो पता चला कि वह अजीब सी चीज वाश-बेसिन है। दादी ने कहा कि अब बिट्टू इसी में मंजन करेगा, हाथ धोयेगा।
अब हमारे लिए तो नई चीज थी वह, वो भी सामने हाथों की पहुँच तक। फिर क्या था, उसको लगाने वाले अंकल उसको लगाने की तैयारी में लग गये तो हमने भी सामान पर हाथ आजमाना शुरू कर दिया।
थोड़ी देर तो किसी ने कुछ नहीं कहा जब हमारा काम ज्यादा बढ़ गया तो हमें मना कर दिया गया। अब हमारा दिमाग कोई कम तो चलता नहीं है। काम करने नहीं दिया जा रहा था सोचा कि करें क्या? नींद भी नहीं आ रही थी। इधर-उधर टहले भी पर मन नहीं लगा।
देखा सभी लोग अपने काम में लगे हैं। पिताजी और चाचा वाश-बेसिन लगवाने में अंकल की मदद कर रहे थे। मम्मी, चाची और दादी भी घर के दूसरे कामों में लगीं थीं तो सोचा कि अपना मनपसंद काम ही कर लिया जाये। बस मौका ताड़ा और घुस गये बाथरूम में। अकेले बाथरूम में ही नहीं घुसे, वहाँ जाकर पानी भरे टब में भी जा घुसे। खूब जम कर पानी से खेला-खाली करी।
हमें आसपास न देखकर चाचा समझ गये कि हम बाथरूम में हैं। उन्होंने आकर हमें पानी से खेलने से रोका। तब तक हम अपना काम तो कर ही चुके थे।
वाह! खूब मजा आया। सब अपने काम में और हम अपने काम में मगन रहे।

टेम्पलेट बदल दिया है....

हमने आज अपने ब्लॉग का टेम्पलेट बदल दिया। हमारे पिताजी के कुछ दोस्तों और हमारे भी कुछ दोस्तों ने पुराने वाले में पढने सम्बन्धी दिक्कत बताई थी।

हमारा माननाहै कि जब तक पढने में न आए तो लिखने का फायदा क्या? आप लोगों को यदि कोई असुविधा हुई हो तो क्षमा करियेगा।

आशा है कि इस टेम्पलेट से दिक्कत नहीं होगी। इस पोस्ट के बाद फ़िर मजेदार बातें। तब तक नमस्ते.....

सारी बातें एक साथ

26 जुलाई 2009

हम तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फेमस हो गए हैं.....


हैरान न होइए, ये सब हमारे चाचा के द्वारा किया गया कमाल है. वे जब भी फुर्सत में कम्प्यूटर पर काम करते हैं तो इसी तरह के कमाल दिखाते हैं. अब देखिये हमें भी बैठे-बैठे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचा दिया. लगीं हैं हमारी फोटो कहाँ-कहाँ. हमें तो बहुत मजा आया. जैसे ही हमने अपनी फोटो यहाँ देखीं हम तो ख़ुशी के मारे ताली पीटने लगे.


25 जुलाई 2009

जब हम गए अपने ननिहाल

आज हम आपको अपनी पहली यात्रा के बारे में बताते हैं। वैसे हमारी पहली कार यात्रा तो हमारे जन्म लेने वाले दिन ही हो गई थी। उसी रात को हमारे मिन्टू चाचा के दोस्त मनीष चाचा हमें अपनी कार से अस्पताल से घर लाये थे। ये तो बहु ही छोटी सी यात्रा थी और हमें तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि हम आ कहाँ गये हैं? (कार से इलाहाबाद जाते हुए)

इसके बाद हम पहली-पहली बार कार से अपने ननिहाल गये थे। आपको पता है कि हमारी ननिहाल इलाहाबाद में है। हम तीन माह के हो गये थे और हमको हमारे नाना-नानी ने नहीं देखा था। हमारे मामा, मामी और मौसी तो हमें देखने उरई आ गये थे पर नाना-नानी अभी तक नहीं आये थे। नाना-नानी हमको देखना चाहते थे और हमारा भी मन था उन लोगों से मिलने का।

(नानी के साथ)


एक दिन कार्यक्रम बनाकर हमारे नाना-नानी हमें लेने उरई आ गये। हम बहुत छोटे थे, उस समय और गरमी भी पड़ रही थी, इसी कारण वे लोग कार लेकर हमें लेने आये थे।

(ये हैं हमारे नाना)


हम अपनी मम्मी के साथ गये थे। रास्ते में हमें मजा भी आ रहा था और हम बीच-बीच में सो भी जाते थे।
इलाहाबाद में हम पूरे एक महीने तक रहे। खूब घूमे भी। हमारी मामी का घर भी वहीं है, उनके घर भी गये थे। एक दिन बाजार घूमने भी गये। एक दिन संगम भी गये थे।

(संगम तट पर मौसी और मामी के साथ)

चूँकि हम पहली बार अपने ननिहाल आये थे इस कारण हमारी आवभगत भी बहुत हो रही थी।
एक बहुत मजेदार बात हुई वहाँ पर। मामा के घर पर एक डागी है, सफेद प्यारा सा। हम उसे देखकर डरते और वह हमको देखकर डरता था। जैसे हमें लगता था कि पता नहीं यह कौन सा जीव है, उसी तरह उसको भी लगता होगा हमें देख कर कि ये कौन सा जीव है।

(यही हैं महाशय सेंटी)


मामा हमको लेते में बहुत डरते थे। वे कभी किसी भी छोटे बच्चे को गोद में नहीं लेते हैं। हमको भी बहुत ही डरते-डरते गोद में लिया था। दो-चार दिन के डर के बाद वे हमें फिर लेने लगे थे। हमारे नाना और नानी हमें बहुत अच्छे से लेते और खिलाते थे।

(अपने मामा की गोद में)

इस बार भी अभी जून में हम फिर से इलाहाबाद गये थे। इस बार तो बहुत ही मजा आया क्योंकि अब हम सबको जानने भी लगे थे। इस बार की कहानी बाद में।

23 जुलाई 2009

हमें तो डर बिल्कुल भी नहीं लगता है

अच्छा बताइये आप लोगों में से कितने लोगों को छिपकली से डर लगता है? अरे! आपको डर लगता है? हमें तो नहीं लगता है। हम जब भी छिपकली को देखते हैं तो तुरन्त उसको पकड़ने के लिए दौड़ पड़ते हैं।
दादी कहती हैं कि बहुत बहादुर है। हाँ, हम बड़े बहादुर हैं। एक दिन हम छत पर रोज की तरह खेल रहे थे तभी दो-तीन बन्दर आ गये। सब लोग मिलकर उन्हें भगाने लगे पर हमें तो उन्हें देखना बड़ा अच्छा लग रहा था। हमें लग रहा था कि कोई उन्हें न भगाये और हम उन्हें देखते रहें।
हम जब टी0वी0 में अपने पिताजी के साथ डिस्कवरी सा नेशनल ज्योग्राफिक देखते हैं तो हमें चीते, शेर, भालू आदि जानवर देखने बहुत अच्छे लगते हैं। इन सबक बारे में हमें किताब से हमारे घरवाले बताते रहते हैं।
आपको बतायें, हमारी मम्मी और चाची को तो बहुत डर लगता है छिपकली से। यदि किसी दिन धोखे से कोई छिपकली घर में दिख भी जाये तो वे जब तक उसे भगा नहीं लेतीं तब तक मानती नहीं हैं।
हम तो नहीं डरते....किसी चीज से नहीं डरते। हमारे पिताजी भी नहीं डरते...बाबा भी नहीं डरते थे। नहीं...नहीं छिपकली अकेले से नहीं, वे लोग किसी भी चीज से नहीं डरते।
हमारे पिताजी बताते हैं कि जब वे हास्टल में पढ़ते थे तो उनके दोस्तों ने उन्हें भूत बन कर डराना चाहा था पर वे डरे नहीं थे।
आपको एक मजेदार बात बतायें, हमें एक चीज से बहुत डर लगता है। जब कोई मुड़ी-तुड़ी चीज जैसे छोटा सा कागज का टुकड़ा, दादी, मम्मी, चाची के टूटे बालों का गुच्छा, रस्सी का थोड़ा सा टुकड़ा, तो जब ये हिलता है तो हम डर जाते हैं।
आजकल हमारे मोहल्ले में बन्दर बहुत आ रहे हैं, इस कारण हम घर में अन्दर ही अपने खिलौनों से खेलते रहते हैं। हमारे पास खिलौने भी मजेदार हैं। आपको इनके बारे में बाद में बतायेंगे। ठीक है......।

22 जुलाई 2009

अब तो एडमीशन भी मिल गया - रामप्यारी मैम की क्लास में

आपको ये तो हम बता ही चुके हैं कि हमें पढ़ने का बहुत शौक है। हमें जब भी घर के कामों (चैका-बरतन वाले नहीं, खेलकूद वाले) से फुर्सत मिलती है वैसे ही हम अपनी किताब निकाल कर बैठ जाते हैं।
अब हमने एडमीशन ले लिया है। पता है कहाँ? रामप्यारी मैम, सारी...बड़ों का नाम नहीं लेते हैं, मैम की इंग्लिश क्लास में। इंग्लिश जरूरी है? हमें समीर अंकल ने उड़नतश्तरी से आकर बताया कि एडमीशन की लिस्ट निकल गई है और हमारा एडमीशन हो गया है।

(ये है हमारे क्लास की तस्वीर)

आपसे इसी कारण भी दो दिनों से बात नहीं हो पाई। एक तो पहला दिन और उस पर मैम ने सवाल भी पूछ लिया। डी फार....। अब तो हम सोच में पड़ गये कि क्या बताया जाये। सभी लोग तो सही-सही जवाब दे चुके थे। फिर हमने भी थोड़ा दिमाग लगाया (दादी कहती भी हैं कि हमारे पास दिमाग बहुत ज्यादा है। कई बार वे एक कहावत भी सुना देतीं हैं और कहतीं हैं कि इसके पेट में दाढ़ी है।) और सवाल का जवाब दे दिया।
मैम ने हमें शाबासी दी। अब सोचिए कि यदि हम सवाल का जवाब न दे पाते तो क्या होता? एक तो बड़ी ही छानबीन के बाद एडमीशन मिला और उस पर भी जवाब न दे पाते तो बस....।
अब इस मुश्किल से निकले कि मैम ने घर के लिए बहुत ही कठिन सवाल दे दिया। मैम ने कहा कि अब सभी लो इसकी अंग्रेजी बनायेंगे ‘‘गया गया गया।’’ हमारा तो सिर घूम गया कि क्या लिखें इसकी अंग्रेजी? देश में अब तो अंग्रेज भी नहीं बचे कि उन्हीं से पूछ लेते।
चलो कोई बात नहीं हम कुछ दिमाग लगाते हैं क्योंकि पिताजी ने तो मना कर दिया सहायता करने से। उन्होंने कहा कि पहले खुद करो जब बिलकुल नहीं आयेगा तब वे बतायेंगे। अब ऐसा तो है ही नहीं कि हमें बिलकुल ही न आये।
जब ज्यादा ही परेशान हो गये तो हमने चाचा से कहा। उन्होंने कहा कि परेशान न हो। तुम्हारी मैम बहुत अच्छी हैं, वे ही मदद करेंगीं। हमें कुछ राहत मिली और खुशी भी बहुत हुई। पता है क्यों? हमारे चाचा हमारे लिए फ्रूटी लेकर आये। बस फिर क्या था, सारी किताबें रखीं बन्द करके और खेलते-कूदते पूरी फ्रूटी पी गये। किसी को एक बूँद भी नहीं दी।

19 जुलाई 2009

हँसो नहीं..हमें भी आता है कम्प्यूटर चलाना

हम बहुत दिनों से देखते थे कि कभी चाचा तो कभी पिताजी एक डब्बे के सामने बैठ जाते और पता नहीं क्या खट-पट करते रहते थे। हमें बड़ा ही अजीब सा लगता था यह सब पर कुछ भी समझ नहीं आता था। एक-दो बार हमने कोशिश की कि पता लगायें कि यह है क्या? अपनी मम्मी, दादी की गोद में चढ़कर सामने आये भी तो चाचा ने हमें सामने बैठने नहीं दिया।
अब हम बड़े परेशान कि क्या करें, तो हमने रोना शुरू कर दिया। हमें मालूम था कि रोना शुरू करो तो कोई सुने या न सुने पर हमारी दादी और चाचा जरूर सुनेंगे। चाचा ने तुरन्त कहा कि ठीक है बैठाओ, इनकी फोटो दिखा दें। पर ये क्या पिताजी ने मना कर दिया। नहीं, रो-धोकर कोई काम न माना जाये। हमने सोचा लो ये हथियार भी बेकार गया। ये बहुत पहले की बात है।
अब कुछ दिन पहले हमने अपने आप जब कुर्सी पर, सीढ़ी पर चढ़ना सीखा तो सबसे पहले चढ़कर छत पर गये। नहीं...नहीं डरिये नहीं, दादी साथ में थीं, छत पर चढ़ने के अलावा एक दूसरी जगह भी चढ़ने का काम किया। पता है कहाँ? जी हाँ, वहीं....हमने मौका देखा और बस चाचा की सहायता से कम्प्यूटर वाली कुर्सी पर चढ़कर बैठ गये। अब हमें इसका नाम और काम समझ में आया।
जैसे ही हम चढ़े बस फिर क्या था हमने दो-चार हाथ-पैर मारे इधर-उधर। कभी की-बोर्ड पर, कभी माउस पर एक बार तो स्क्रीन पकड़ने ही दौड़े। आपको बतायें कि हमें रोकने वाला तो कोई था भी नहीं। पिताजी थे नहीं, चाचा और दादी रोकतीं नहीं, बस...।
हमारी हरकतें देखकर चाचा लग गये हमारी फोटो खींचने में और हम लग गये अपनी फोटो देखने में। हम खुशी के मारे इतना उछल रहे थे कि हमारी कोई भी फोटो साफ नहीं आ रही थी। तभी लगा कि पिताजी आ गये हैं तो हमने तुरन्त चाचा से कहा कि हमें नीचे उतार दो नहीं तो आपकी भी डाँट पड़ेगी।
एक बात और आपको बता दें कि हमें मोबाइल बहुत पसंद है। हमें जब भी मौका लगता है, मोबाइल उठाकर चाचा से बात करना शुरू कर देते हैं। हमें मोबाइल के ज्यादा प्रयोग से भी रोका जाता है। सब लोग कहते हैं कि इससे कोई खतरनाक तरंग निकलतीं हैं। अब हमें क्या मालूम क्या खतरनाक है। हमें तो बस मजा आता है।
आप लोगों को बतायें कि कितने व्यस्त रहते हैं हम। चाचा से फोन पर बात, बुआ लोगों से बात, मामा लोगों से बात और भी बहुत से काम। अब बिना मोबाइल के कैसे निपटेंगे? अब कौन समझाये पिताजी को? चलो मान लेते हैं उनकी बात...ठीक है।


17 जुलाई 2009

स्टेशन की बात और रसगुल्ले

अभी दो-तीन दिन पहले हम गये रेल्वे स्टेशन। हमें कहीं जाना नहीं था। उस दिन हमारी मीतू बुआ जी लखनऊ से ग्वालियर जा रहीं थी। हमारे पिताजी और चाचाजी उनसे मिलने के लिए स्टेशन जाने वाले थे। वे लोग तैयार हो रहे थे और हम जाग रहे थे। उन लोगों का तैयार होते देख हम समझ गये कि ये लोग कहीं जाने का प्लान बनाये हैं।
जब हमें पता लगा कि बुआ से मिलने जा रहे हैं तो हम भी साथ हो लिए। जैसे ही स्टेशन पहुँचे वहाँ एक रेलगाड़ी आ गई। हमने हालांकि इससे पहले भी ट्रेन देखी थी पर पास से, एकदम पास से पहली बार देखा। आपको बता दें कि जब हम हुए थे उसके दो-तीन महीने बाद ही हम अपने नाना के घर गये थे। नाना लेने तो आये थे गाड़ी लेकर और जब हम बापस आये तो ट्रेन से आये थे।
हम ट्रेन में घूमे भी कई बार हैं। एक बार ग्वालियर गये, फिर एक बार लखनऊ गये। कानपुर जाना भी एक बार हुआ तो ट्रेन से ही गये। एक बात बतायें कि इतने छोटे में ही हम खूब घूम लियें। दादी कहतीं हैं कि हमारे पिताजी को भी घूमने का बहुत शौक है, वे भी बहुत जगहों पर घूमे हैं। वे कहतीं हैं कि इसी तरह हमें भी घूमने का शौक है।
वैसे यह बात सच भी है हमें घूमने में मजा बहुत आता है। ट्रेन में तो हम बड़ी ही मस्ती से इधर-उधर घूमते-टहलते रहते हैं पर कार वगैरह से घूमने पर हमको नींद आ जाती है। एक तो इधर-उधर टहलने का मौका नहीं मिलता और फिर गोद में बैठे-बैठे हमें भी बोरियत हो जाती है।
हाँ, तो हम बता रहे थे आपको अपने स्टेशन की बात। वहाँ थोड़ी देर तक तो हमें अच्छा लगा फिर हमें इन्तजार करते-करते ऊबन होने लगी। थोड़ी देर में स्टेशन पर घंटी बजी और हमारे चाचा ने बताया कि अब ट्रेन आने वाली है। चाचा ने हमें सिगनल भी दिखाया और बताया कि कैसे इसके ऊपर-नीचे होने से ट्रेन रुकती और चलतीं हैं।
बहुत लम्बे इन्तजार के बाद हमारी बुआ की ट्रेन आ गई। बुआ के साथ हमारे बाबा भी थे, सबसे छोटे बाबा। हम तो बुआ जी की गोद में ही नहीं गये। हमें बहुत डर लग रहा था कि कहीं हमारी बुआ हमें अपने साथ न लिये जायें। हम इन्हीं बुआ के बारे में बता रहे थे। हम इन्हीं की शादी में लखनऊ गये थे और एक कार्यक्रम में ग्वालियर भी गये थे।
थोड़ी देर मिलने के बाद बुआ की ट्रेन चली गई और हम अपने चाचा-पिताजी के साथ घर लौट आये। हाँ, चाचा ने स्टेशन से यहाँ उरई के प्रसिद्ध रसगुल्ले भी खरीदे। आपको पता है कि एक फिल्म में शायद हम साथ-साथ हैं के एक डायलाग में उरई के रसगुल्लों का जिक्र किया गया है। बहुत ही बढ़िया रसगुल्ले हैं यहाँ के। कभी आप लोगों को खिलायेंगे।

14 जुलाई 2009

आपको लगता है कि हम शैतान हो गए हैं?

आजकल हम बड़े शैतान हो गये हैं, ऐसा हमारी दादी, मम्मा, पिताजी कहते हैं। हमें तो नहीं लगता कि हम शैतानी कर रहे हैं। हमें शैतानी करने का मन तब करता है जब हमारे बड़े चाचा हमारे साथ होते हैं, तब उनके कारण हमें कोई भी नहीं डाँट पाता।
अब हम इतने छोटे शैतानी कैसे करेंगे? सब लोग बस ऐसे ही हमें परेशान करते रहते हैं।
हमें अभी बाहर खेलने तो जाने नहीं दिया जाता। हम मोहल्ले में ही आसपास के घरों में खेलते हैं। घर में बराबर बने रहकर हमें भी तो बोरियत होती है। पास की दीदी और भैया हमारे साथ खेलने आ जाते हैं पर अब वे भी ज्यादा समय नहीं दे पाते क्योंकि उन लोगों के स्कूल जो खुल गये हैं।
इसी कारण हम अपने खिलौनों से ही खेलते रहते हैं। अपने सभी खिलौनों को इधर-उधर उठाकर फेंकने का खेल हमें बड़ा पसंद आता है। अब इसी को आप हमारी शैतानी कह सकते हैं। अभी इतना ही, शाम हो गई है, दीदी और भैया आ गये हैं। हम जा रहे हैं अभी बाहर खेलने। रात को या कल फिर आकर मिलेंगे।

12 जुलाई 2009

पानी बरसा भीगने में आया मजा


इधर कुछ दिनों से बारिश जैसी स्थिति बन रही है पर पानी नहीं बरस रहा है। गरमी बहुत हो गई है। पाँच-छह दिन पहले हमारे मोहल्ले का ट्रांसफार्मर खराब हो गया था। उसके बदलने में पूरे 36 घंटे लगे। इन्वर्टर भी बन्द हो गया। अब आप सोचो कि क्या हालत हुई होगी।
हमारी तो समझ में नहीं आ रहा था कि ये हो क्या गया है? कभी तो पूरे घर में रोशनी रहती थी और आज? हाँ, एक बात हमारे लिए तो अच्छी हुई कि हमें एक-दो चीजें पहली बार देखने को मिलीं।
एक तो हम रात में छत पर सोये। इससे पहले हम छत पर खेलने जरूर जाते रहे, अभी भी जाते हैं किन्तु रात को सोये पहली बार थे। बड़ा अच्छा लग रहा था। खुला-खुला आसमान, चन्दा मामा भी निकले थे और पूरे जोरों से निकले थे। दादी ने बताया कि शुक्ल पक्ष है और दो दिन बाद पूर्णिमा है इस कारण चन्दा मामा की रोशनी बड़ी शीतल लग रही है।
रात में हम सोये बड़े ही मजे से। सारी रात ठंडी हवा चलती रही। तब पता लगा कि कूलर, पंखे की हवा से कितनी अधिक अच्छी होती है खुली हवा।
दूसरी घटना जो हालांकि एक बार और हो चुकी है पर तब समझ नहीं पाये थे, वो है हमारा मोमबत्ती देखना। मोमबत्ती हमने अपनी सालगिरह पर भी देखी थी। पर वह कुछ खिलौने जैसी थी तो हम समझ ही नहीं सके थे कि ये है क्या। जब अभी बिजली नहीं रही और इन्वर्टर ने भी काम करना बन्द कर दिया तो रोशनी के लिए मोमबत्ती जलानी पड़ी। उसे देख कर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक इतनी छोटी सी चीज इतनी रोशनी कर रही है।
चलिए अब तो लाइट भी आ रही है और पानी भी थोड़ा सा गिर जाता है। घर में सभी लोग कह रहे हैं कि इस तरह का पानी बरसना और फिर धूप का निकलना बीमारियाँ फैलाता है। अब हमें इतनी समझ तो है नहीं कि इस तरह के मौसम से क्या होता है। हमें बारिश में भीगने में मजा आया। नहीं तो हम अपनी सफेद कैप और चश्मा लगा कर ही कहीं आते-जाते थे।
बाहर आना-जाना पड़ता है, बहुत काम रहता है। आपको तो कुछ नहीं......हाँ।

10 जुलाई 2009

कमाल का रिश्ता - मौसी छोटी और बिटिया बड़ी


ये तो हैं हम।


पहचानिये ये कौन है?
नहीं पहचाना होगा, क्योंकि आप लोग अभी तक इनसे मिले ही नहीं हैं।


अच्छा मिले तो आप इनसे भी नहीं हैं पर क्या बता सकते हैं कि ये हमारी कौन हैं?
आप नहीं पहचान सकते, ये हैं हमारी दीदी।
अब आप समझे कि ऊपर वाली फोटो किसकी है? नहीं समझे? ओ हो !!!! कोई बात नहीं। हम ही बताते हैं।

ये हैं हम और साथ में हमारी "बिटिया" चौंक गए।
जी हाँ ये सही है। ये हमारी दीदी की बेटी हैं। इस रिश्ते से ये हुई हमारी भी बेटी (भतीजी) और हम हुए इनकी मौसी।
कहिये कैसी लगी जोड़ी? मौसी छोटी और बिटिया बड़ी। हा....हा.....हा....







09 जुलाई 2009

हाँ जी, अब हम पढ़ने भी लगे हैं

न....न आप आश्चर्य न करिए, हम पढ़ने लगे हैं। दरअसल हमें किताबें बहुत छोटे से ही बहुत पसंद आने लगीं थीं। हम जब भी अपने पिताजी को कुछ पढ़ते देखते तो उनकी किताबों को पकड़ने के लिए लपकते। कई बार कुछ किताबें और समाचार-पत्र हमने फाड़ भी दिये। इस कारण से हमारे चाचा हमारे लिए एक सुन्दर सी किताब ले आये थे।
किताब आये बहुत दिन हो गये थे। हमने उसमें कुछ चित्रों को पहचानना भी शुरू कर दिया था। कुत्ता, गाय, कबूतर, फूल को तो हम बड़ी अच्छी तरह से पहचान लेते हैं। इसका एक कारण हमारी गली में रोज ही कुत्ता, गाय, चिड़िया आते-जाते रहते हैं।
किताब में बनी छोटी लड़की को हम दीदी के द्वारा पहचान पाते हैं। और तो और अब हम आइसक्रीम को भी पहचानने लगे हैं। पहले हमने आइसक्रीम देखी नहीं थी इस कारण हम उसे पहचान नहीं पाते थे। इस बार गर्मियों की छुट्टी में हम अपने नाना के घर इलाहाबाद गये। वहाँ हमारे मामा ने हमको आइसक्रीम खिलाई, सच में बड़ा मजा आया। तब से हम आइसक्रीम पहचानने लगे हैं।
हमें वैसे भी चाकलेट, फ्रूटी बहुत ही पसंद है पर घर में सब लोग हमें ज्यादा नहीं खाने देते हैं। हमको भी पता है कि ज्यादा खाना नुकसान करता है पर क्या करें मन ही नहीं मानता है। वैसे एक बात और हमारे दाँत तो हैं नहीं (नहीं...नहीं...अभी छह दाँत तो हैं) जो गिर जायेंगे। वैसे भी इन दाँतों को तो गिरना ही है। चलिये बड़ों की बात माने लेते हैं, नहीं खाते हैं ज्यादा इन चीजों को।
बात हो रही थी पढ़ने की। दो-तीन दिन पहले हमारी किताब हमें फिर मिल गई। तबसे इसे हम अपने संग लिए घूम रहे हैं। सब लोग कहते हैं कि हमें भी पढ़ने की आदत रहेगी। हमारे बाबा को भी कुछ न कुछ पढ़ते रहने की आदत थी। उनका तो आज भी एक बक्सा है जो साहित्यिक उपन्यासों से भरा हुआ है। हमारे पिजाती के बाबाजी भी सारा दिन कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे। (हालांकि इन दोनों लोगों को हमने तो देखा नहीं है।) हमारे पिताजी भी बहुत पढ़ते हैं, सारा दिन कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं। हमारे पिताजी के पास भी बहुत किताबें हैं। सेल्फ में सजी किताबें देख कर हमारा मन बहुत ललचाता है।
हम भी सोचते हैं सजा लो आप कुछ दिन और। जब हम थोड़ा बड़े हो जायेंगे तो निकाल कर पढ़ लिया करेंगे।

08 जुलाई 2009

कल हम गिर गए....पर लगी नहीं.

कल हमारे साथ कुछ अलग सा हो गया। आपको पता है कि कल सोते समय हम पलंग से गिर गये। हुआ ये कि हम सोते-सोते कभी-कभी इधर-उधर करवट भी बदलते रहते हैं। कई बार तो हम बच जाते हैं क्योंकि कोई न कोई हमारे सोते समय हमारे आसपास घूमता रहता है।
कल हुआ ऐसा कि हमने करवट तो बदली और हम पलंग के दूसरी तरफ खिसक गये। अगले ही पल हमने पलंग के उस ओर अपने आपको सरका दिया जहाँ पर गिरने की सम्भावना थी। बस फिर क्या था, हम धड़ाम से नीचे।
एक पल को तो हमें समझ ही नहीं आया कि हमें हो क्या गया है? हम पलंग से कहाँ आ गये? अरे! हम जमीन पर कैसे? बस फिर क्या था, जैसे ही हमें लगा कि हम जमीन पर गिर पड़े हैं, हमने रोना शुरू कर दिया।
दादी ने, मम्मी ने दौड़ कर हमें उठाया। हालांकि हमें लगी नहीं थी क्योंकि हमारा सिर जमीन से टकरा नहीं पाया। पर हम डर बहुत गये थे। ये तो कहो कि हमारे बड़े चाचा घर पर नहीं थे नहीं तो सभी की बहुत डाँट पड़ती।
वैसे आपको बतायें कि हम एक बार पहले भी गिर चुके हैं। तब तो हम पहली बार गिरे थे और इतना डर गये थे कि पूछो नहीं। और मजेदार बात ये कि तब हम सो नहीं रहे थे। तब तो हम जागते में गिरे थे।
हुआ ये था कि तब हमें बहुत अच्छे से चलना नहीं आता था। हम वाकर के सहारे चला करते थे। कभी आँगन, कभी कमरों में, कभी बरामदे में चक्कर लगाते रहते थे। एक दिन हम अपना वाकर-टहल कर रहे थे तभी हमारे बड़े चाचा और चाची कहीं जाने के लिए घर से बाहर आये। हम भी उनके पीछे-पीछे दरवाजे तक आ गये।
दरवाजा खुला था और कोई भी हमारे साथ नहीं था। हमने सोचा कि लाओ चाचा-चाची को हम भी टाटा-बाय कर लें, बस हो गई यहीं चूक और हम हो गये धड़ाम। सीधे दरवाजे से बाहर गली में जा गिरे, वो भी वाकर समेत। तब भी हमें लगी नहीं थी पर पहली बार गिरे थे तो डर बहुत गये थे।
अब तो दो-तीन बार गिर चुके हैं पर गिरने से अभी भी डर लगता है। अब कोशिश करेंगे कि गिरें न।

03 जुलाई 2009

अपने जन्मदिन पर हम बड़े हैरान

आज आपको हम अपने जन्मदिन की बात सुनाते हैं। हमारा जन्मदिन 5 मई को पड़ता है। घर में सभी की बहुत इच्छा थी कि इसे विस्तृत रूप से मनाया जाये। चाचा और पिताजी के एक परिचित मित्र हैं जो एक गेस्ट हाउस के संचालक हैं, उनके गेस्ट हाउस को बुक करने की बात भी हो गई।
घर में इस तरह का पहला कार्यक्रम किया जाना था तो सोचा गया कि सभी को बुलाया जाये। बाबा-दादी, बुआ-फूफा, नाना-नानी, मामा-मामी, चाचा तथा और भी बहुत सारे लोगों को बुलाया जाना तय हुआ। गर्मी के मारे हाल भी बुरा था पर जन्मदिन मनाया जाना था और सभी को आना भी था।
इधर घर में कुछ कारणों से चाची घर से बाहर नहीं जा सकतीं थीं। इस कारण हमारे पिताजी का मन नहीं था कि इस तरह से बड़ा कार्यक्रम किया जाये और घर का ही कोई सदस्य उसमें शामिल न हो पाये। बहुत विचार-मंथन के बाद यह तय किया गया कि किसी को भी न बुलाया जाये और आसपास के बच्चों को ही बुला कर एक बच्चा पार्टी कर दी जाये।
कुल मिला कर सब तैयारी होने लगी। वह दिन भी आ गया। चाचा सामान लाने और उनको सजाने में ही लगे रहे। पिताजी के एक बहुत ही घरेलू दोस्त बबलू चाचा हमारे लिए केक बनवाने गये। उन्होंने और पिताजी ने इतना बड़ा केक बनवाया कि जब शाम को बबलू चाचा केक लाने गये तो वह आसानी से उठ नहीं रहा था। इस डर से कि कहीं केक रास्ते में टूट न जाये बबलू चाचा ने उसका आधार अपने कम्प्यूटर के ढक्कन से बना दिया।
घर में सभी तैयारी हो गईं थीं। हमारे मोहल्ले के बच्चों को और आसपास के घरों के कुछ खास लोगों को ही बुलाया गया। सबने मिल कर खूब धमाचैकड़ी की। हम ठहरे बहुत ही छोटे तो हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है? हमारे चाचा ने हमें अपनी गोद में लेकर हमसे केक कटवाया, मोमबत्ती भी जलवाई। हम तो बस सभी को देख-देख कर खुश हो रहे थे। कभी हम अपनी मम्मा की गोद में रहते, कभी चाची की गोद में, कभी हमें चाचा ले लेते तो कभी मोहल्ले की छोटी-छोटी दीदियाँ हमें ले लेतीं।
हम तो बस इधर-उधर हैरत से देख रहे थे और यही सोच कर प्रसन्न थे कि आज सभी लोग हमारे आसपास घूम रहे हैं।
मजा तो अब अगले जन्म दिन पर आयेगा जब हम समझदार हो जायेंगे और मस्ती में सभी के साथ झूमेंगे।

02 जुलाई 2009

सब खुश हुए हमारे होने पर....

हमारे नाम की तरह हमारे होने में भी एक विशेष बात रही। घर में सभी लोग चाहते थे कि लड़की हो। हमारा जन्म हमारे शहर के जिला चिकित्सालय में हुआ था। हमारे पड़ोस की दादी चिकित्सा विभाग में ही कार्यरत हैं। उन्हीं की देखरेख में हमारा जन्म हुआ। घर से सभी सदस्य, पड़ोस की दादी और छोटी बुआ भी माँ के साथ गये थे।
(हम अपनी दादी के साथ)
हमारे जन्म होने के समय माँ के पास पड़ोस की दादी थीं और वे ही हमें लेकर बाहर आईं तो छोटी बुआ ने सबसे पहले हमें ले लिया। दादी उस समय दूर थीं उन्होंने इशारे से बुआ से पूछा कि कौन हुआ है? बुआ ने जो भी कहा हो पर दादी को लगा कि लड़का हुआ है। दादी ने बाहर निकल कर हमारे पिताजी को बताया कि लड़का हुआ है। दादी के बताने में और पिताजी के सुनने के बाद उत्साह सा नहीं दिखा। कारण घर के लोग चाहते थे कि लड़की हो।
(हम अपने चाचा के साथ)
जब छोटी बुआ ने आकर चाची को बताया और दादी को पता चला कि हम हुए हैं तो सभी बहुत प्रसन्न हुए। हमारे बड़े चाचा तो इतने ज्यादा खुश थे कि वे तो वहीं अस्पताल में ही पटाखे चलाना चाहते थे। उन्हें तो हमारे पिता ने, दादी ने और चाचा के दोस्त ने रोका तब वे माने। आसपास के लोग बड़ी हैरानी से हमारे घर के लोगों को देख रहे थे।
बड़े चाचा ने हमारे होने की सूचना सभी को फोन से देनी शुरू कर दी। उनकी बातों से छलकती अप्रत्याशित खुशी देखकर वहाँ आये लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि आज के जमाने में भी कोई ऐसा होता है जो लड़की के जन्म पर बहुत प्रसन्न होता हो। शहर में भी जिसे-जिसे खबर की गई वो उसी समय वहीं अस्पताल में या अगले दिन घर पर हमसे मिलने के लिए आया। हम उसी दिन रात को लगभग साढ़े दस बजे घर बापस आ गये थे। हमें लेने के लिए हमारे छोटे चाचा के एक दोस्त -मनीष चाचा- अपनी गाड़ी लेकर अस्पताल आये थे।
हम घर आ गये, एक ऐसे घर में जहाँ लड़कियों को बहुत प्यार दिया जाता है, लड़को से भी ज्यादा। हमारे आते ही बहुत से कार्यक्रम होने लगे, इनके बारे में फिर कभी। अभी बस इतना ही।





हमारे नाम हैं बहुत सारे

अपने ब्लाग पर आने में आप सभी का सहयोग पहले दिन ही मिलाए बहुत अच्छा लगा। लगभग सभी लोगों को हमारे बुआ-फूफा द्वारा दिया गया नाम ‘कुहुक’ बहुत अच्छा लगा। हमारे नाम की भी अपनी एक अलग कहानी है। घर में हमें क्या कहा जायेगा इस पर सभी की अपनी-अपनी राय हमेशा से रही है। बड़े चाचा तो हमारे जन्म के पहले से ही हमें परी कहने लगे थे। छोटे चाचा बाहर रहते हैं और जब भी फोन से बात करते हैं तो हमें बिट्टू कह कर ही बुलाते हैं। हमारे नाना-नानी के यहाँ हमें सभी लोग पायल कहते हैं।
दादी सोना कहती हैं तो बड़ी चाची कद्दू कह कर बुलातीं हैं। हमारी माँ हमें हमेशा बेटू कहतीं हैं तो पिताजी ने हमारा नाम रिद्धि रखा है पर वे अभी हमें प्यार से बिटोली कहते हैं। उनका कहना है कि वे जल्दी ही हमें रिद्धि नाम से ही बुलायेंगे।
ये तो थीं घर पर पुकारे जाने वाले नामों की कहानी। मजा तो तब आया जब हमारा जन्म प्रमाण-पत्र बनना था। चाचा और हमारे पिता का कहना था कि वही नाम प्रमाण-पत्र में लिखवाया जाये जो बाद में स्कूल में लिखवाया जाना है। अब सभी में चर्चा होती रहती कि क्या नाम रखा जाये। कोई कुछ नाम बताता, कोई कुछ नाम सुझाता पर चाचा या पिताजी को कोई भी नाम पसंद नहीं आता। वे दोनों लोग हमारा कोई अलग सा नाम रखना चाहते थे, बिलकुल अपने नामों की तरह।
कई दिनों की मशक्कत के बाद तय हुआ कि हमारा नाम अक्षयांशी रखा जाये। दादी ने और कई लोगों ने कहा कि नाम कठिन है, बच्चों को लेने में दिक्कत होगी। चाचा ने इसकी काट यह कह कर की कि हमेशा बच्चे ही तो नाम नहीं लेंगे। अक्षयांशी नाम के पीछे का एक कारण हमारा अक्षया तृतीया को जन्म लेना भी रहा है। बस हमारा नाम हो गया अक्षयांशी पर सभी प्यार से अपने-अपने नामों से ही बुलाते हैं।
कोई किसी भी नाम से बुलाये बस प्यार से बुलाये, यही बहुत है।